भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपने शहर पर / रमेश ऋतंभर
Kavita Kosh से
अपने शहर पर कभी-कभी बहुत गुस्सा आता है
जहाँ हर कोई हर किसी के बारे में बेमतलब जानकारी रखता है
हर तीसरा व्यक्ति रोक कर पूछता है
कि आजकल क्या कर रहे हो?
(जबकि उसे सामने वाले से कोई सहानुभूति नहीं होती)
हर किसी के पास बहुत सारा खाली समय होता है
और हर कोई हर-दूसरे की प्रगति से जलता है
अपने शहर पर कभी-कभी बहुत गुस्सा आता है
हर कोई हर किसी में अनावश्यक दिलचस्पी लेता है
हर कोई हर किसी के खाने-पहनने को लेकर सवाल करता है
हर किसी की बात सुनते-सुनते आदमी का कान पक जाता है
'और लोग क्या कहेंगे' में ही
हर किसी का जीना मुहाल हो जाता है
सचमुच
अपने शहर पर कभी-कभी बहुत गुस्सा आता है
कभी-कभी बहुत।