भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने साथ / माधवी शर्मा गुलेरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुर्लभ होते हैं ऐसे पल
सब होता है जब
एकान्त से भरा और
नितान्त निजी

कोई नहीं दिखता आस-पास
पथरीली चुप्पी के सिवा
मैं होती हूँ सिर्फ़
अपने साथ
वक़्त गुज़ारती हुई

बिखरने लगते हैं मोह-तंतु
टूट-टूट कर जब
बेतरह अकेला
भीतर का कोई अंश
गर्भनाल तोड़कर
आ बैठता है सामने
...
...
और मैं हो जाती हूँ अलमस्त ।