अपने सूरज की मूरत स्वयं गढ़ी / बालस्वरूप राही
जाने किस मिट्टी से निर्मित हूँ मैं
तुम से ज़्यादा तो स्वयं चकित हूँ मैं
मैं ने जितना विषमय अंधियार पिया
उतनी ही ज़्यादा मेरी चमक बढ़ी।
जितनी विपरीत परिस्थतियां भोगीं
मन को अपने अनुकूल बनाया है
मैं जितना अधिक लड़ा हूँ नफ़रत से
उतना ही सबका प्यार कमाया है।
औरों से आगे निकल न पाते वे
जो बंधे-बंधाये पथ पर चलते हैं
जो भटक रहे अजनबी दिशाओं में
वे मंज़िल का इतिहास बदलते हैं।
क्या हुआ न मुझ से धूप अगर बोली
मैं ने भी कब उस पर खिड़की खोली
मैं ने तो जाग सांवली रातों में
अपने सूरज की मूरत स्वयं गढ़ी।
ज़िन्दगी न पिघले हुए मोम-सी है
किस तरह उसे सांचे में ढालोगे?
तुम लावे के सागर से बेझुलसे
कैसे मोती अनमोल निकालोगे?
मांगो न छाँह जीवन का दाह सहो
दो-बार रोज़ मेरी भी तरह रहो
वे ही मधुमास उगाते मरुथल में
जिन पर न कभी फूलों की भेंट चढ़ी।