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अपने से दूर तुझको किधर ढूंढ रहा हूँ / आनंद कुमार द्विवेदी
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मंज़िल के बाद कौन सफ़र ढूंढ रहा हूँ
अपने से दूर तुझको किधर ढूंढ रहा हूँ
कहने को शहर छोड़कर सहरा में आ गया
पर एक छाँवदार शज़र ढूंढ रहा हूँ
जिसकी नज़र के सामने दुनिया फ़िजूल थी
हर शै में वही एक नज़र ढूंढ रहा हूँ
लाचारियों का हाल तो देखो कि इन दिनों
मैं दुश्मनों में अपनी गुजर ढूंढ रहा हूँ
तालीम हमने पैसे कमाने की दी उन्हें
नाहक नयी पीढ़ी में ग़दर ढूंढ रहा हूँ
जैसे शहर में ढूंढें कोई गाँव वाला घर
मैं मुल्क में गाँधी का असर ढूंढ रहा हूँ
यूँ गुम हुआ कि सारे जहाँ में नहीं मिला
‘आनंद’ को अब तेरे ही दर ढूंढ रहा हूँ