भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने हर दर्द को अशआर में ढाला मैंने / श्रद्धा जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने हर दर्द को अशआर में ढाला मैंने
ऐसे रोते हुए लोगों को संभाला मैंने

शाम कुछ देर ही बस सुर्ख़ रही, हालांकि
खून अपना तो बहुत देर उबाला मैंने

बच्चे कहते हैं कि एहसान नहीं फ़र्ज़ था वो
अपनी ममता का दिया जब भी हवाला मैंने

कभी सरकार पे, किस्मत पे, कभी दुनिया पर
दोष हर बात का औरों पे ही डाला मैंने

लोग रोटी के दिलासों पे यहाँ बिकते हैं
जब कि ठुकरा दिया सोने का निवाला मैंने
  
आप को शब् के अँधेरे से मुहब्बत है, रहे
चुन लिया सुबह के सूरज का उजाला मैंने

आज के दौर में सच बोल रही हूँ 'श्रद्धा'
अक्ल पर अपनी लगा रक्खा है ताला मैंने