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अपने ही खेत की मट्टी से जुदा हूँ मैं तो / नश्तर ख़ानकाही

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अपने ही खेत की मिट्टी से जुदा हूँ मैं तो ।
इक शरारा हूँ कि पत्थर से उगा हूँ मैं तो ।

मेरा क्या है कोई देखे या न देखे, मुझको
सुब्ह के डूबते तारों की ज़िया<ref>रोशनी</ref> हूँ मैं तो ।

अब ये सूरज मुझे सोने नहीं देगा शायद
सिर्फ़ इक रात की लज़्ज़त का सिला हूँ मैं तो ।

वो जो शोलों से जले उनका मदावा<ref>दवा से इलाज किया हो जिसका</ref> है यहाँ
मेरा क्या ज़िक्र कि पानी से जला हूँ मैं तो ।

कौन रोकगा तुझे दिन की दहकती हुई धूप
बर्फ़ के ढेर पे चुपचाप खड़ा हूँ मैं तो ।

लाख मुहमल<ref>व्यर्थ, बेकार</ref> सही पर कैसे मिटाएगी मुझे
ज़िन्दगी तेरे मुक़द्दर का लिखा हूँ मैं तो ।

शब्दार्थ
<references/>