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अपने ही नाम / सांवर दइया
Kavita Kosh से
मेरे बाहर फैली एक दुनिया असीम
जितनी भी है यहां
सुगंध-दर्गंध
जितना भी है
उजाला-अंधेरा
आकश-हवा-पक्षी
नदी-झरने
और भी न जाने क्या-क्या
और बई न जाने कितना-कुछ
उसे अपने भीतर समेटूं
रचाऊं
पचाऊं
इस असीम दुनिया को बसाऊं
और जो कुछ है भीतर
सारा का सारा उलीच दूं बाहर
और बन जाए
यह धरती मेरा घर
पीड़ा मेरी
न रहे सिर्फ मेरी
शब्दों के माध्यम से
पहुंचे जब तुम तक
सार्वभौमिक हो जाए
जन-जन को लगे
मेरा हर आखर-अक्षत
दर्द की यह यात्रा
चलती रहे अनवरत
भीतर से बाहर
बाहर से भीतर
इस यात्रा में
मैं मील का पत्थर
बनूं / न बनूं
लेकिन
सजग यात्री अवश्य बना रहूं !
मील के हर पत्थर को
पीछे छोड़ता
उस छोर तक जा पहुंचूं
जिसके आगे
मील का कोई पत्थर न हो !