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अपने ही रचे को / सांवर दइया
Kavita Kosh से
पहली बरसात के साथ ही
घरों से निकल पडते हैं बच्चे
रचने रेत के घर
घर बनाकर
घर-घर खेलते हुए
खेल ही खेल में
मिटा देते हैं घर
अपने ही हाथों
अपने ही रचे को मिटाते हुए
उन्हें नहीं लगता डर
सुनो ईश्वर !
सृष्टि को सिरज-सिरज
तुम जो करते रहते हो संहार
बने रहते हो-
बच्चों की ही तरह निर्लिप्त-निर्विकार ?