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अपने होंठों पर इक दिया रौशन कर / कृश्न कुमार 'तूर'

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अपने होंठों पर इक दिया रौशन कर
तेरे दिल में भी है ख़ुदा रौशन कर

एब तो यही इक जा-ए- इमाँ बाक़ी है
आँखें खोल तिलिस्मे-अना रौशन कर

खोल दे जितने क़ुफ़्ल हैं दरवाज़ों के
जो कुछ भी है अपने सिवा रौशन कर

 जो आँखों को नम लब लरज़ीदा करे
तू अब इक ऐसी ही दुआ रौशन कर

चिट्टी चुप के सहर में है सारे लोग
लफ़्ज़े लहू से बज़्म ज़रा रौशन कर

नये सिरे से ख़ुद अपने को पहचान
ताक़ पर रक्खा हुआ दिया रौशन कर

अपने लहू से लिख किताबे- ज़ीस्त को ‘तूर’
और उसके हाथों की हिना रौशन कर