भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने होने का हम एहसास दिलाने आए / निश्तर ख़ानक़ाही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने होने का हम एहसास दिलाने आए
घर में इक शमआ पसे-शाम जलाने आए

हाल घर का न कोई पूछने वाला आया
दोस्त आए भी तो मौसम की सुनाने आए

नाम तेरा कभी भूलूँ, कभी चेहरा भूलूँ
कैसे दिलचस्प मेरी जान ज़माने आए

ग़म के एहसास से जब भीग चली थीं आँखें
ठीक उस पल मुझे कुछ ज़ख़्म हँसाने आए

यों लगा जैसे कलाई की घड़ी है तू भी
हम जो कुछ वक़्त तेरे साथ गँवाने आए

हम से बेफ़ैज फ़क़ीरों की है परवा किसको
रूठ जाएँ तो हमें कौन मनाने आए