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अपनों का खून / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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सहमी हुई है क्यों हवा?
क्यों ठक खडे है/है, पेड़
पुरानी दीवार पर में उगा पीपल
जैसे किसी साजिश में शामिल है
हर एक पन्ना खूनी है, हर डाली क़ातिल है ।।
और आसमान आज,मौत की तरह वे चुप है ।
दूर बाँसो के झुरमुट में,
सियार रो रहा हो जैसे कोई ।
पड़ोसी के घर में चूल्हे से
धुँआ नहीं उठ रहा है,
रोकर थके कंठ की कराह
लगता है आरे की धार नंगे सिर से
गुजर रही है
पता चला है ,मासूमियत बे मौत मर रही है
चौराहे पर बिखरे खून को देखकर
आँखें बार -बार भर आती हैं!
प्रश्नाकुल हो उठती हैं
मैं पहचानने की कोशिश करता हूँ-
परन्तु एक भी क़तरा/
पहचाना नहीं जा रहा है ।
कि यह किसका खून है,
किसके सपनों का खून है।
 खून मेरे कानों में फुसफुसाया-
‘यह मेरे अपनों का खून है!!’
-0-[16-5-85: आकाशवाणी रामपुर-12-7-85, आहटें संग्रह]
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