Last modified on 28 अगस्त 2020, at 12:47

अपनों पर अपने हैं छाए / विजय बहादुर सिंह

अपनों पर अपने हैं छाए
दुर्दिन के दिन ऐसे आए

अब पहचान नहीं आते हैं
कौन है अपना कौन पराए

जंगल-जंगल सुलग उठी हैं
टहनी-टहनी गरम हवाएँ

कौन बचा जो ज़िन्दा साबुत
लूले - लँगड़े सारे साये

काल का कोड़ा पीठ हमारी
घेर खड़ी हैं मौत - बलाएँ।

फ़रवरी - 1990