भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनों से ज़्यादा तो नहीं कोई पराया / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


अपनों से ज़ियादा तो नहीं कोई पराया
ग़ैरों की रफ़ाक़त ने ये अहसास कराया

मुद्दत से वफ़ाओं का सिला ढूँढ रहा हूँ
अब तक तो कहीं उसका पता मिल नहीं पाया

इक बार चराग़ों को हवाओं से बचाया था
रह-रह के वफ़ाओं ने हमें ख़ूब डराया

इल्ज़ाम तो आना था आया है कि हमने
काँटों से भरे शहर में फूलों को उगाया

दिल-दिल से मिले या न मिले हाथ मिलाओ
हमको ये सलीक़ा भी बड़ी देर से आया

अपनी तो हर इक बात पे लगता है शहर को
किस दौर का इन्सान है किस दौर में आया

पत्थर ही कोई बरसा जहाँ प्यार से देखा
मुश्किल से बहुत अब तक ख़ुद को है बचाया

हमने भी यहाँ यूँ ही कुछ नाम कमाया है
बेबात हँसे ख़ुद भी लोगों को हँसाया

दीवार गिराने की जहाँ बात उठाई
हर शख़्स ने दीवार को ऊँचा ही उठाया

परवेज़ ने खाये थे बहुत तीर ज़माने के
इक तीर ज़माने पे उसने भी चलाया