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अपन अपन विश्वास / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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अपन अपन विश्वास थिकैक।
अहाँ बुझैत छिऐक ईश्वरक
सकल कल्पना फूसि,
जीवन थिक संघर्ष लड़ैत
रही तेँ सभसँ ढूसि।
अहाँ बुझैत छिऐ’ परिजन
पुरजनसँ की सम्बन्ध,
अपन पेट टा भरक हेतु
चाही किछु नोक प्रबन्ध।
अपने, बेटा-बेटी, पत्नी
एतबे थिक परिवार,
क्षुद्र स्वार्थसँ परिवेष्टित अछि
एहिना भरि संसार।
अहाँ बुझैत छिऐक पितर लय
व्यर्थ चुरू भरि पानि,
प्रत्यक्षे टा केँ प्रमाण बुझि
ली विवाद किछु ठानि।
हम बुझैत छी ईश्वर अंशे
थिक संसारक प्राणी,
शाश्वत सत्यक चिन्तक ऋषि-
मुनिकेर मुखक ई वाणी।
जीवन थिक संघर्ष, तकर
कारण थिक मनोविकार,
मनोविकारो नैसर्गिक, तेँ
करी तकर प्रतिकार।
अन्तर्मन जेँ छोड़ि प्रकृतिकेँ
विकृतिक आश्रय लैछ,
तेँ विवेककेँ जाग्रत कय
तकरासँ लोक लड़ैछ।
परिजन-पुरजन सम्बन्धे थिक
मनुष्यताकेर तत्त्व,
तकर सुरक्षा लग पुनि पेटक
नहि अछि तते’ महत्त्व।
हम बुझैत छी पेट अहँक थिक
गोनूझा केर ढाकी,
भरि न सकत आ देव-पितर-
ऋषि-ऋण रहि जायत बाँकी।
स्वार्थक क्षुद्र परिधिमे सिकुड़ल
रहि नहि सकब मनुक्ख,
किन्तु अहाँ नहि मानब, हमरो
अछि तकरे टा दुःख।
पितरक सुमिरन कयनिहारकेँ
भेटय आत्म-प्रकाश,
बिना स्वरूपक परिचय रखने
रहब मनुष्याभास।
चर्म-चक्षसँ नग्न सत्य केर
दर्शन भय न सकैछ,
तेँ अपने अन्तरमे चिन्तक
जीवन-ज्योति तकैछ।
छोड़ि आधिभौतिक सुख भ्रमसँ
बहरयबाक प्रयास थिकैक।
अपन अपन विश्वास थिकैक।
अहाँ बुझैत छिऐक नीति,
आदर्श थिकै’ पाखण्ड,
साम-दाम ओ दण्ड-भेदमे
सभसँ उत्तम दण्ड।
अहाँ बुझैत छिऐक भोग
मानव जीवनकेर लक्ष्य,
मङनीमे जे भेटि जाय से
भय न सकैछ अभक्ष्य।
अहाँ बुझैत छिऐक वंचना
करब थिकैक चलाकी,
हो किछु लाभक सम्भव तँ
आगाँ-पाछाँ नहि ताकी।
अहाँ बुझैत छिऐक पूर्वजक
संयम-नियम वितण्डा
धर्मशास्त्र थिक सकल समाजक
शोषक, तीर्थक पण्डा।
हम बुझैत छी-बिनु आदर्शेँ
व्यर्थ मनुष्यक जीवन
दण्ड-भेदस भय न सकै, अछि
शान्ति पथक अवलम्बन
हम बुझैत छी-भोग रोग थिक,
योगे त्याग सिखाबय,
त्यागे थिक ओ तत्त्व मनुजकेँ
अमृतक स्वाद चिखाबय।
हम बुझैत छी परमार्थेसँ
मनुज मनुजता पाबय।
भक्ष्य वैह थिक जे मानसमे
सात्विक भाव जगाबय।
संयम-नियमक पालन कयनहि
मनक हटैछ विकार,
धर्मशास्त्र तकरे निर्णायक,
पूर्वज कयल विचार।
आत्म-तत्त्व थिक सत्य-प्रदर्शक
बाँकी मनोविलास थिकैक।
अपन अपन विश्वास थिकैक।
अहाँ बुझैत छिऐक धर्म थिक
कारण मूल विवादक,
अहाँ बुझैत छिऐक जाति थिक
वैषम्यक उत्पादक।
अहाँ बुझैत छिऐ’ जे सहजहि
समता आनि सकै’छी,
झोलङा भेल समाज-खाटकेँ
तुरत गतानि सकै’छी।
हम बुझैत छी-धर्मक बलपर
चलइछ मानव-लोक
अकर्त्तव्यपर एखनो धरि
धर्मे रखने अछि रोक।
धर्मक अर्थ थिकै’ अनुशासन
शासन थिकै’ व्यवस्था,
तकरे यदि पालन नहि होयत
बिगड़त स्वतः अवस्था।
समता थिक अस्वाभाविक,
तेँ व्यर्थ तकर आयास,
सिंहक भोजन मांस, पशुक
भोजन होइत छै’ घास।
विद्या-बुद्धि-विवेक-ज्ञान-
बल-रूपेँ जखन विषमता,
प्रकृति-प्रदत्त थिकैक, तखन
की रटने होयत समता।
यैह विषमता तँ समाज-
गाड़ीकेँ घीचि चलाबय,
शैत्य पानिकेँ बर्फ बनाबय-
गर्मी पुनि पिघलाबय।
छोट पैघ सभ काज समाजक
थिक आवश्यक अंग,
ठाढ़ रहैछ भवन जै चारू
ठीके रहय अलंग।
की सुरत्व, असुरत्व, दुनूकेर
मानव हृदय निवास थिकैक।
अपन अपन विश्वास थिकैक।