अपराजिता / आरती 'लोकेश'
चौके को लीपकर
सुलगाकर सीली टहनियाँ
श्वास भर धुआँ-धुआँ
बेहैंडिल तवे पर
टूटा चिमटा फेंककर
हाथ से सेंककर
थाप कर रोटी
घर भर को खिलाती है
वह फिर मुसकाती है।
नित्य पनघट राह में
पथरीली पगडंडी पर
नंगे पैर चलकर
टीसते रहे घाव
शीश-कटि मटका धरे
छलकते वारि में
रिसते रक्त से
राहत पाती है
वह फिर खिलखिलाती है।
दोपहर तपती धूप में
धान खेत-खलिहान में
मनों भार गठरी धर
गीले पल्ले पोंछती पसीना
बुवाई, रोपाई, कटाई
हाथों के छाले भूल
गीली मेड़ में
फिर धँस जाती है
मगर न अघाती है।
चूल्हे बुझी राख ले
जूठन हटाते हुए
मसाले कूटते
खाँस-खाँस जाते हुए
सन की रस्सियों से
खाट बुनाते हुए
अनिर्वचनीय सब वचन
टूटकर भी निभाती है
खुद को बनाने फिर जुट जाती है।
आकार में है यूँ बड़ी
नेता के घोषणा-पत्र के
शब्दों से बाहर रह जाती है
सराहना के वर्णों में
हर बार छूट जाती है
कवि कल्पना के
वितान न समाती है
आघातों, अभावों, प्रहारों की धार चल
अपराजिता कहलाती है।