भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपराजिता / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे सुकेशी! सघन श्यामल केश -राशिक कुंचने
झहरि जाइछ पावसक उमड़ल जलद - माला मने।।1।।
सुमुखि! अहँक सिङारसँ शरदक सिङरहारक दशा
देखितहिँ छी, सहज झरि जाइछ पराजित परवशा।।2।।
मानिनी! मानक भयेँ अछि शिशिर कम्पित गात ई
मुख - कमलकेँ देखि हेमन्तक गलल कमलावली।।3।।
अङ्ग चम्पक सुरभि मातल मलय - वायु दिगन्तमे
बहय जकरहि स्पर्शसँ कुसुमित रसाल वसन्तमे।।4।।
श्यामे! मृदुल कर चरण पल्लव देखि विकसित तनु-लते!
ग्रीष्म मर्मर पत्र व्याजेँ मुरुझि जाइछ संगते।।5।।
नित्य ऋतु - शृंगार सजनहु प्रकृति रहथि पराजिता
हृदय - मन्दिर मूर्ति पूजित सुन्दरी अपराजिता।।6।।