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अपराजेय / तरुण
Kavita Kosh से
मैं!-और मानूँ, हार?
जन्म से जो ऊधमी हो-
मौत के जबड़े पकड़ कर,
खींच उसके दाँत सरे,
जिन्दगी का अर्क पीने को खड़ा तैयार!
मैं!-और मानूँ, हार!
1956