भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपराजेय / तरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं!-और मानूँ, हार?
जन्म से जो ऊधमी हो-
मौत के जबड़े पकड़ कर,
खींच उसके दाँत सरे,
जिन्दगी का अर्क पीने को खड़ा तैयार!
मैं!-और मानूँ, हार!

1956