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अपराध कर के जो उसे स्वीकार कर सकता नहीं / रंजना वर्मा

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अपराध कर के जो उसे स्वीकार कर सकता नहीं ।
वो जन किसी मन पर कभी अधिकार कर सकता नहीं।।

जो स्वार्थरत है दूसरों का दुख उसे दिखता कहाँ
जीता सदा जो स्वार्थ हित उपकार कर सकता नहीं।।

जिस को न श्रम से प्रेम हो आलस्य जिस का मीत हो
देखे अनेकों स्वप्न पर साकार कर सकता नहीं।।

हो प्रीति परिपूरित हृदय जिसमें भरे शुभ भाव हो
ऐसा मनुज दुष्कर्म या व्यभिचार कर सकता नहीं।।

गुंजार भँवरे कर रहे कुसुमित सुमन की पौध पर
कोई सुमन को तोड़ कर अभिचार कर सकता नहीं।।

हों भूख से व्याकुल उदर प्यासे अधर सूखे रहें
गुरु रंक के मन भक्ति का संचार कर सकता नहीं।।

अपने स्वजन ही शत्रु बन धोखा सदा देते रहें
ऐसा हृदय विश्वास तो हर बार कर सकता नहीं।।