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अपलक जगती हो एक रात / जयशंकर प्रसाद
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अपलक जगती हो एक रात!
सब सोये हों इस भूतल में,
अपनी निरीहता संबल में,
चलती हों कोई भी न बात!
पथ सोये हों हरयाली में,
हों सुमन सो रहे डाली में,
हों अलस उनींदी नखत पाँत!
नीरव प्रशांत का मौन बना ,
चुपके किसलय से बिछल छना;
थकता हों पंथी मलय- वात.
वक्षस्थल में जो छुपे हुए-
सोते हों ह्रदय अभाव लिए-
उनके स्वप्नों का हों न प्रात.