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अपशकुन / दीपक जायसवाल
Kavita Kosh से
रात को जब
सियारों की हुँआ-हुँआ की हूँक
बच्चों के सपनों तक पहुँचती है
वे रोने लगते हैं
बकरियाँ डर जाती हैं
लोगों का कहना है
भूत-प्रेतों की शक्तियाँ
अंधेरे की ताक़त
सत्ता कि भूख
पाताली कुएँ की गहराई
हत्यारों के ख़ंजर की धार
इसी पहर कई गुना बढ़ने लगती है
मैं जब छोटा था
उनसे बचने के लिए अक्सर चद्दर में
अपना सर डाल लिया करता था
इसके बावजूद कि मैं शतुर्मुर्गों को
पसंद नहीं करता था
जब वे गाँव में आते कुत्ते भौंकने लगते
हम हर सुबह सुनते
कोई बकरी गायब हो गयी है
कि लोरियाँ नहीं बचा पायीं
बच्चों की नींद को।
मुझे भ्रम है!
कि सचाई?
कुत्तों की आवाज़ सियारों से
मेल खाने लगी है
किंवंदती है कुत्तों का रोना
और भारी अपशकुन होता है।