भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपाहिज भोर होती है / रमेश तैलंग
Kavita Kosh से
ईंट पत्थर पर टिकी आराधना कमजोर होती है.
जो दिखावे के लिए हो प्रार्थना वो शोर होती है.
भीड़ का चेहरा नहीं होता कोई भी
भीड़ के केवल हज़ारों हाथ होते हैं,
और उन्मादी किसम के लोग ही बस
भीड़ की परछाइयों के साथ होते हैं,
लोग - जिनकी देह तो क्या आत्मा भी चोर होती है.
वाकज़ालों में उलझ जाएँ अगर तो
पुण्यतम संकल्प भी न अर्थ पाते हैं,
हो नहीं सम्मान जो सम्पूर्ण रचना का
धर्म हो या कर्म सारे व्यर्थ जाते हैं,
संधि करले कालिमा से तो अपाहिज भोर होती है.
जो दिखावे के लिए हो प्रार्थना वो शोर होती है.