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अपाहिज व्यथा / राकेश खंडेलवाल

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मौन है स्वर, हृदय गूँगा, आँख में आँसू नहीं हैं
इक अपाहिज सी व्यथा का बोझ कांधे पे रखा है

ढाक के वे तीन पत्ते, जो सदा शाश्वत रहे हैं
आज फिर से सामने आये हैं मेरे खिलखिलाते
नीम की कच्ची निबोली पर मुलम्मा चाशनी का
उम्र सारी ये कटी है बस यूँ ही धोखे उठाते

तोड़ जी करते प्रयासों का, सदा उपलब्धियों के
हश्र क्या होगा किसी को ज्ञात ये कब हो सका है

साँझ ढूँढे मोरपंखी बिम्ब दर्पण में निशा के
साथ चलना चाहती द्रुतगामिनी हवा के
पर टिकी बैसाखियों पर एक जर्जर क्षीण काया
दो कदम भी बढ़ न पाती, ठोकरें खा लड़खड़ा के

भोर का पाथेय लेकर राह कोई सज न पाती
नीड़ में ही हर मुसाफ़िर हार कर बैठा थका है

स्वप्न की अगवानियों को, लोरियाँ सुधि ने न गाई
एक असमंजस भरी, कलियाँ न पल भर मुस्कुराईं
दीप सब दीपावली के पूर्णिमा के हमसफ़र हैं
हो गई वीरान मन के घाट तक जाती डगर है

एक गति चलचित्र सी है, द्वार के बाहर निरन्तर
चौखटे में कैद पर, दीवार पर ये मन टँगा है

ओढ़ सन्नाटा घनेरा, कक्ष में बैठी दुपहरी
और पहरा अजनबियत द्वार देती बन प्रहरी
त्योरियाँ अपनी चढ़ाये, वक्त डूबा रोष में है
शेष, गहरे शून्य की पूँजी ही मेरे कोष में है

सौंप दी रंगरेज को थी, ज़िन्दगी की प्राण चादर
किन्तु उसने सूर वाला रंग कमली रंगा है