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अपाहिज / महेश रामजियावन

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मेरी परछाईं
मत छूना
मेरे अजन्मे पुत्र!
तुम अपाहिज बन जाओगे ।

सुबह जो मैंने
शक्कर कारखाने के सामने
आत्महत्या की,
मेरा शरीर मर गया
पर मैं नहीं मर पाया
और मेरी पच्चीस प्रतिशत आत्मा
अब भी
मेरे शव में अटकी हुई है ।

मैं चाहता था मर जाऊँ
पूरी तरह
ताकि इन मिलों की चिमनियों के धुएँ
जो मेरे पुरखों के जले खून से निकले हुए हैं
उन से जाकर कहूँ
कि मैंने तुम्हारी
आत्मा के खून का बदला ले लिया है ।
कोई भी सज़ा स्वीकार है ।

परन्तु मैं मर नहीं पाया

और मेरे इर्द-गिर्द
जो लोग सट आते हैं
अपाहिज हो जाते हैं
इसीलिए मेरी परछाईं

कभी मत छूना !