अपूर्व शिखर / इला कुमार
वह अपनी बेटी को जनम देती है
मातृत्व की विलक्षण अनुभूतियों के बीच मृदुलता का
जादू जाग उठता है
संतान के मानस को हिंसा के विष झकारों से दूर
रखने के प्रण के साथ वह
कई सालों तक सुनहली वीथियों के बीच सुगंध की
तरह विचरती है
पूरे बारह वर्षों के बाद लड़की एक सांझ खुले
आसमानों के नीचे आ खड़ी होती है
तनी हुई बाहों की शाखों पर गुलाबी रंगत के नाखून
मासूमी से मुस्कराते हुए
अंगुलियों की पोरों पर नीले चंदोवे को
महसूसने के लिए वह
अपनी बाहें
दूर आकाश की तरफ तान देना चाहती है
एक पैर घुमा कर सारी धरा को घेरते हुए नृत्य मुद्रा
की खास भंगिमा बनाना चाहती है
आने वाले बेतरतीव वर्षों में
उसका परिचय
संसार में बिखरी हिंसाओं से होता है
सहेली के बोलों में घुली हिंसा
पति की सांसों में रची-बची हिंसा
सास-ननद के कटाक्षों में बिंधी हिंसा
कई वर्षों के बाद एक उमगती शाम में वह
अपने अंतर से उन्मुख होती है
वहां तमाम खाली जगहों में भरी
हिंसाओं को देखकर आश्चर्यचकित होती है
कसे हुए तानो-बानों के बीच उमड़ती सड़ांध
उसे एक बड़ी झील की तलाश है
तमाम जमी हुई हिंसाओं को घेरने वाले वलयों के
सिरों को वह तोड़ेगी
सारा विष बहते पानी में बहा देगी
उसे मातृत्व के उस निर्मल शिखर की तलाश है
जहां बैठकर मां अपनी संतान के लिए
एक हिंसामुक्त संसार का स्वप्न देखती है
उस अपूर्व शिखर पर जाने का ख्याल
खुद को संवारने का ख्याल
पूरी पृथ्वी के आसपास मंडराता है!