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अपेक्षित / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
सरस अधरों पर
प्रफुल्लित कंज-सी
मुसकान हो !
या उमंगों से भरा
मधु-गान हो !
मुसकान की
मधु-गान की
अभिशप्त इस युग में कमी है !
अत्यधिक अनवधि कमी है !
मात्र —
नीरव नील होठों पर
बड़ी गहरी परत
हिम की जमी है !
प्रत्येक उर में
वेदना की खड़खड़ाती है फ़सल,
आह्लाद-बीजों का नहीं अस्तित्व,
केवल झनझनाते अंग,
मानव —
चित्र-रेखा-वत्
खोजता सतरंग !