भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अप्प दीपो भव / शुद्धोदन 2 / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
बाहर है अँधियारा - भीतर भी राजा के
क्या था कल - क्या है अब
सोच रहे शुद्धोदन
भिक्षु हुए सभी कुँवर
धीर नहीं धरता मन
सूख गये सभी ताल-पोखर भी राजा के
सात वर्ष पिछले थे
शनि की साढ़े-साती
देख दशा महलों की
फटती उनकी छाती
फेरे मुँह खड़े सभी चाकर भी राजा के
कौन उन्हें साजे अब
ढह रहे कँगूरे हैं
महलों में -आसपास
जगह-जगह घूरे हैं
झूठे हो गये सभी आखर भी राजा के