अप्रणय — 2 / राजकमल चौधरी
रिक्शे पर उसने कहा, मैं तुम्हें ठण्डी दिखी, तुमने मुझे क्यों
नहीं चूम लिया ओठों पर, जब हम घर में,
शम्भू महाराज के घर में आए, वह बिल्कुल रोने लगी
जैसे स्कूल से भागी हुईं लड़कियाँ रोती हैं,
जब मैंने उसकी साड़ी, पहली बार तो उसने साड़ी नहीं
पहनी थी, वह बिल्कुल रोने लगी, उसने कहा,
प्यार क्या सिर्फ़ यही होता है, बिल्कुल यही, जो कुछ भी है
सब तुम्हारा है, यह एहसास क्या शान्त, और
धुला हुआ रहने के लिए काफ़ी नहीं, उसने कहा,
जब उसकी साड़ी पलंग के पाँव में फँस गई, रिक्शे पर
उसने कहा था, घर में उसने कहा, मैंने जब कहा था,
तब कहा था मैंने, जैसे मैं सोच रही थी कि ऐसा कहने का,
कह देने का क्या मतलब होता है, रिक्शे पर,
और पलंग पर क्या मतलब होता है, चूम क्यों नहीं लिया,
तुमने मुझे ओंठों पर
पलंग पर उसने कहा, आजकल इतना सर्द
होता है प्यार कि साड़ी फँसने से, ओंठ कसने से, या’नी
साँप डसने से भी गर्म नहीं होता है, गर्म होना बिल्कुल
अलग बात है, वैसा तुम नहीं होने पर भी होता है,
तुम होने पर भी नहीं होता है, उसने कहा, और गुस्से में,
शायद नक़ल, शायद असल गुस्से में वह बाथरूम
चली गई, होने के लिए, नहीं होने के लिए ...