जो मैंने किया, जो मैंने कहा
कोई तलाश करने की कोशिश न करे
उस सबमें — मैं कौन था क्या था ।
एक बाधा थी जो मेरी ज़िन्दगी के
तौर तरीकों और कार्रवाइयों को
ग़लत अन्दाज़ में पेश करती,
एक बाधा थी, जो अक्सर
जब भी मैं बोलना शुरू करता
रोकने उठ खड़ी होती ।
मेरे जिन कामों को सबसे ज़्यादा अनदेखा रखा गया
मेरे जिस लिखे को सबसे पीछे खिसका
छिपा दिया गया
उन्हीं, सिर्फ़ उन्हीं से समझा जाएगा मुझे ।
किन्तु मुमकिन है यह बहुत अहम बात न हो
इतनी मेहनत, खोजने की, कि सचमुच मैं क्या हूँ ।
आगे कभी, एक बेहतर समाज में
मेरे ही जैसा कोई
प्रकट होगा निश्चय ही —
लेगा वह निर्णय बिना भेदभाव के।
[1908]
कवाफ़ी की इस कविता में महाकवि भवभूति का बहुश्रुत श्लोक बजता सुना जा सकता है [निश्चय ही संयोग से] :
उत्पत्स्येस्ति मम कोऽपि समानधर्मा
कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वीू [सु०स०]
[यह कविता कवि के जीवनकाल में अप्रकाशित रही]
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल