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अप्राप्य वसंत / आलोक श्रीवास्तव-२

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तुम एक ऐसा अप्राप्य वसंत बन गईं
जिसकी पगछाप
वनथलियों में कहीं नहीं थी

जबकि बौर तुममें महके थे
नदी तुममें उमड़ी थी
कोई कूज़न था वहां
कोई टेर थी

पर सब कुछ जैसे मिथक हो सुदूर का
तुम्हारा रूप रूप नहीं
एक स्वप्न का कल्पित चित्र हो महज

ज़रूर कोई इंद्रजाल था
या सरोवर के पानी का माया-कुहुक
कि रंगों के, फूलों के, गंध के
ऐसे अटूट ज्वार के बावजूद
तुम एक ऐसा अप्राप्य वसंत बन गईं
जिसकी पगछाप
वनथलियों में कहीं नहीं थी ।