भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अफ़ई की तरह डसने लगी मौजे-नफ़स भी / फ़राज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


अफ़ई<ref>काला साँप</ref> की तरह डसने लगी मौजे-नफ़स<ref>साँसों की गति भी</ref> भी
ऐ ज़ह्रे-ग़मे-यार<ref>मित्र के दुख रूपी-विष</ref> बहुत हो चुकी बस भी

ये हब्स<ref>घुटन</ref> तो जलती हुई रुत में भी गराँ<ref>भारी</ref> है
ऐ ठहरे हुए अब्रे-क़रम<ref>कृपा रूपी बादल</ref> अब तो बरस भी

आईने-ख़राबात<ref>मधुशाला के नियम</ref> मुअत्तल<ref>रोके हुए हैं</ref> है तो कुछ रोज़
ऐ रिन्दे-बलानोशो-तही-जाम<ref>अधिक मद्यपान करने वाले ख़ाली पात्र</ref> तरस भी

सय्यादो-निगहबाने-चमन<ref>उद्यान के शिकारी और संरक्षक</ref> पर है ये रौशन
आबाद <ref>बसा हुआ</ref>हमीं से है नशे-मन<ref>उद्यान</ref> भी क़फ़स<ref>कारागार</ref> भी

महरूमी-ए-जावेद<ref>नित्य की वंचितता</ref> गुनहगार न कर दे
बढ़ जाती है कुछ ज़ब्ते-मुसलसल<ref>लगातार सहन </ref> से हवस <ref>उत्कंठा</ref>भी

 

शब्दार्थ
<references/>