अफ़ग़ानिस्तान की स्त्रियों के लिए / शीमा कलबासी / अशोक पाण्डेय
मैं टहल रही हूँ काबुल की गलियों में
रँगी हुई खिड़कियों के पीछे
टूटे हुए दिल
और टूटी हुई स्त्रियाँ हैं
जब उनके परिवारों में
कोई पुरुष नहीं बचता
रोटी के लिये याचना करतीं
वे भूख से मर जाती हैं
एक ज़माने की अध्यापिकाएँ,
चिकित्सिकाएँ और प्रोफ़ेसर
आज बन चुकी हैं
चलते-फिरते मकान भर
चन्द्रमा का स्वाद लिए बगैर
वे साथ लेकर चलती हैं
अपने शरीर ,कफ़न सरीख़े बुर्क़ों में
वे कतारों के पीछे धरे पत्थर हैं
उनकी आवाज़ों को
उनके सूखे हुए मुँहों से बाहर
आने की इज़ाज़त नहीं
तितलियों जैसे उड़ती हुई
अफ़गान स्त्रियों के पास
लेकिन कोई रँग नहीं
क्योंकि ख़ून सनी सड़क के अलावा
वे कुछ नहीं देखतीं
रँगी हुई अपनी खिड़कियों के पीछे से
वे नहीं सूँघ सकतीं
बेकरी की डबलरोटी
क्योंकि उनके बेटों की उघड़ी हुई देहें
सारी गन्धों को ढँक लेती हैं
और उनके कान कुछ नहीं सुनते
क्योंकि वे सिर्फ उनके भूखे पेट को सुनती हैं
गोलीबारी और आतँक की हर आवाज़ के साथ
अनसुनी कराहों और उनके रूदन के साथ ।
कड़वाहट के साथ चुप करा दी गई
शान्ति एक उपाय है
अफ़गान स्त्री के जीवन के रक्तपात के लिए ,
बाहर न आती हुई भिंची हुई आवाज़ें
टूटती जाती हैं
उनके जीवन के
त्रासद अन्त में ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अशोक पाण्डेय