अबकी बार कहाँ ले जाएँ / राजेश शर्मा
अबकी बार कहाँ ले जाएँ ,ये व्यापार कहाँ ले जाएँ,
ढाई आखर लुटे यहाँ भी,बन्दनवार कहाँ ले जाएं .
साथ किनारों ने छोड़ा है,तूफानों ने,भ्रम तोड़ा है.
लहरों का आमंत्रण तो है,पर पीड़ा है, जल थोडा है.
बिन पतवारों की नौका को,बिन मझधार कहाँ ले जाएं.
हिमगिरी को गलने की पीड़ा,नदियों को चलने की पीड़ा.
खारापन भी दे जाता है, सागर में मिलने की पीड़ा .
सागर की पीड़ा कहती है, ये विस्तार कहाँ ले जाएं.
यादों ने तन, मन को बांटा , खुशबू ने चन्दन को बांटा.
हमने बांटे गीत तभी जब,साँसों ने धड़कन को बांटा.
सारा आँगन बाँट दिया है, हरसिंगार कहाँ ले जाएं.
दरवाजे से वापस हो ली, गीतों के कांधों की डोली .
चौक, सांतिये मेंटे जग ने,तुमने भी पोंछी रंगोली.
देहरी तक तो ले आए हैं ,और कहार कहाँ ले जाएं.
पाँवों से घर-द्वार बंधा है, हाथों से व्यापार बंधा है,
मन से कोई आस बंधी है, सांसों से संसार बंधा है.
जब इतने बंधन स्वीकारे, कुछ प्रतिकार कहाँ ले जाएं.
शामिल होकर , दरवेशों में ,हम भटकेंगे परदेशों में.
जाने तुमने क्यों कर दी है, प्राणप्रतिष्ठा, अवशेषों में.
ठौर नहीं जर्जर झोली में ,ये उपकार कहाँ ले जाएं.