भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अबकी होली बांसवन / शिवनारायण / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खेत-खेत सरसों खिलै रहर रहै फगुराय
माँटी में धनियाँ दिखै बूँट-मटर छितराय
जौ-गेहूँ के शीश सब, लहरी केॅ मुस्काय
रेड़-मकै के आड़ में पहिलोॅ फागुन गाय।
महुआ, मादर-मंजरी, मद सें छै बौराय
अबकी सजनी चैत में फागुन रास रसाय।
पोखर-पोखर साँवरी ओढ़ी चुनरी पीत
तड़बन्ना के आड़ सें वंशी टेरे मीत।
खेलै हिरना होरी छै, ताड़गंध रोॅ गोद
सरसों प्यारी छै डरै, पछियौ करै विनोद।
प्रीत चुनरिया मोॅन के गाँव-गाँव लहराय
तभिये फागुन रस जगै सब आँखों में जाय।
धानी चुनरी ओढ़ि केॅ, महकै बेर मकोय
भोरकोॅ भिनसर गंध में, कुछ-कुछ मन में होय।
मन केसर सें लादलोॅ, वासन्ती रस-भार
कली-कली पर भौर जों राधा-किसना-प्यार।
सुगना रोॅ उमगै नयन, सौ-सौ वसन्त
जों हुलास चित्त गोरी के, होरी पीके संग
बदली वन में आग छै, ई केसरिया फाग
टहटह विछसैलोॅ चाँदनी, महुआ केरोॅ भाग
फोॅन काढ़ी केॅ साँप छै, बेंग करै चित्कार
अबकी होली बाँसवन, दया करोॅ सरकार।