अबके बरस भी बादल सावन के खूब बरसे / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
अबके बरस भी बादल सावन के खूब बरसे
हम बदनसीब ऐसे इक बूंद को भी तरसे
दर-दर भटक चुका जब आया शरण तुम्हारी
अब किसके पास जाऊँ उठ कर तुम्हारे दर से
पानी का बुलबुला है इन्सां की ज़िन्दगानी
क्या मौत का भरोसा आ जाए कब किधर से
मंज़िल ने पाँव चूमे बढ़कर उसी पथिक के
जिसने न हार मानी काँटों भर डगर से
मझधार से निकल कर तट पर सकी तरी वो
लड़ती रही सतत जो तूफ़ान से, भँवर से
रोया कभी विवश मैं जब याद में तुम्हारी
पागल कहा सभी ने निकला जहाँ, जिधर से
फैलाए जिसने बाहर चादर से पाँव अपने
ठोकर मिली उसी को दुनिया में दर-ब-दर से
पाकर भी हाय! उनको मैं पा सका न जैसे
हाथों से जाम छूटे छूकर किसी अधर से
स्वागत किया है मैंने हर दर्द का अदब से
तुम क्या डरा रहे हो मुझको व्यथा के डर से
बन्धन में व्याकरण के भाषा न प्यार की है
कोई न वास्ता है उसका अगर-मगर से
परवरदिगार पर है जिसको यक़ीन पूरा
क्या है उसे ज़रूरत उम्मीद की बशर से
मशहूर है मसल ये, भूला न वो कहाता
आ जाए शाम को जो निकला सुबह का घर से
काबू में कर लिया है चाहत को जिसने अपनी
मतलब उसे ‘मधुप’ क्या दुनिया के मालो-ज़र से