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अबके यूं मौसमे-खिज़ां गुज़रा / कांतिमोहन 'सोज़'
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अबके यूं मौसमे-खिज़ां गुज़रा ।
यूँ लगे है अभी कहाँ गुज़रा ।।
उसके आने पे क्या समां गुज़रा
जैसे सहरा से गुलसितां गुज़रा ।
कल तक इनमें लहू की बून्द न थी
आज आँखों से कारवां गुज़रा ।
शुक्र रब का दुआ क़बूल हुई
जो गुज़रना था सब यहाँ गुज़रा ।
जिसकी मुद्दत ही थी नहीं कोई
एक ऐसा भी इम्तहां गुज़रा ।
कैसे कह दें न आशनाई की
हम पे ये भी अज़ाबे-जां गुज़रा ।
ज़िन्दगी आह उसका ज़िक्र न कर
एक लम्हा था क्या गिरां गुज़रा ।
क्या क़यामत का रोज़ आ पहुँचा
सोज़ बस्ती से पुरफ़ुग़ां गुज़रा ।।