भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अबके यूं मौसमे-खिज़ां गुज़रा / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अबके यूं मौसमे-खिज़ां गुज़रा ।
यूँ लगे है अभी कहाँ गुज़रा ।।

उसके आने पे क्या समां गुज़रा
जैसे सहरा से गुलसितां गुज़रा ।

कल तक इनमें लहू की बून्द न थी
आज आँखों से कारवां गुज़रा ।

शुक्र रब का दुआ क़बूल हुई
जो गुज़रना था सब यहाँ गुज़रा ।

जिसकी मुद्दत ही थी नहीं कोई
एक ऐसा भी इम्तहां गुज़रा ।

कैसे कह दें न आशनाई की
हम पे ये भी अज़ाबे-जां गुज़रा ।

ज़िन्दगी आह उसका ज़िक्र न कर
एक लम्हा था क्या गिरां गुज़रा ।

क्या क़यामत का रोज़ आ पहुँचा
सोज़ बस्ती से पुरफ़ुग़ां गुज़रा ।।