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अबला / भास्करानन्द झा भास्कर

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परेशानियों के बीच
दबी रहती हैं
कुछ जिन्दगानियां
सुबकती,
सिसकती,
दुबकती खुद में
निर्वाक,
बेवस…
लाचार..
बहन, बहू, बेटियां…
हंसते चेहरों
के बीच
दफ़्न हो जाती है
उनकी तमाम खुशियां,
पल पल
मिटती रहती
सिमटकर
उनके अन्दर की दुनियां
और वे
रह जाती है दबी,
उत्पीड़ित,
खामोश,
अवला...
परम्पराओं,
सामाजिक मर्यादाओं की
खड़ी दीवारों में
युगों युगों से कैद होकर…