अबिगत गति कछु कहति न आवै / सूरदास
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥
भावार्थ :- यहां अव्यक्तोपासना को देहाभिमानियों के लिए क्लिष्ट बताया है। निराकार निर्गुण ब्रह्म का चिंतन अनिर्वचनीय है। वह मन और वाणी का विषय नहीं। गूंगे को मिठाई खिला दी जाय और उससे उसका स्वाद पूछा जाय, तो वह कैसे बतला सकता है, वह रसानंद तो उसका अन्तर ही जानता है। अव्यक्त ब्रह्म का न रूप है, न रेख, न गुण है, न जाति। मन वहां स्थिर ही नहीं हो सकता। सब प्रकार से वह अगम्य है, अतः सूरदास सगुण ब्रह्म श्रीकृष्ण की लीलाओं का ही गायन करना ठीक समझते हैं।
शब्दार्थ :- अबिगत = अव्यक्त, अज्ञेय जो जाना न जा सके।
गति = बात। अन्तर्गत = हृदय, अन्तरात्मा। भावै = रुचिकर प्रतीत होता है।
अमित =अपार। तोष =सन्तोष, आनन्द। अगोचर = इन्द्रियजन्य ज्ञान से परे।
गुन =गुण, सत्व, रज और तमो गुण से आशय है। निरालंब = बिना अवलंब या सहारे के।
सगुन =सगुण, दिव्यगुण संयुक्त साकार ब्रह्म श्रीकृष्ण।