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अबूझमाड़-3 / श्रीप्रकाश मिश्र

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मैं अपनी इन्हीं आँखों से देख रहा हूँ
अपने धान खेतों को
एक-एक कर बदल जाते हुए
खदानों, कारख़ानों, मिलों में
जिनके मालिक हम नहीं हैं

हमारे हरे-भरे पहाड़
एक-एक कर होते जा रहे हैं
भूरे वीरान
कुछ के अस्तित्व का पता ही नहीं चलता

हमारी नदियाँ सूख गई हैं
उनमें कभी चमककर तैरने वाली मछलियाँ
ग़ायब हो गई हैं
ग़ायब हो गई है नदी की रेती

मैं अपनी इन्हीं आँखों से
देख नहीं पा रहा हूँ
कि इनके मालिक
कौन लोग बनते जा रहे हैं ।