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अबै आप समचार सुणो / जनकराज पारीक
Kavita Kosh से
सूरज चंदेरी धूप मैं
चालरयो है बनभोज
भ्रष्टां रै
भीतरली उथळा-पुथळी सो,
पिछवाडै़
चीढ़-मींगणा करती बकरी सी
आखै मुलक में गन्द घोळ'री है
रात री बची-खुची रोटियां,
समुन्दर सी घण्घोर गरजना करतो
कुरळावै है
राजधानी रो रेडियो,
हिंसा रै होठां पर
दंदासै सी
रच-बसगी है आदमी री नींद।
इण हरख-हूंस री बेळा
जल्दी-जल्दी अमल पियाला घोळै
राजा अस्टभुजाधारी
प्रजा रो पैंदो
निकळ रैया है
पोपटखान री
ठंडी हो चुकी चिलम-तंबाखूं सो
पूरो जंगळ
मोमाख्यां रै छतै तरियां लबालब है
अर मांय बैठी राणी माक्खी
अंडा देय रैई है
बड़ै मुग्ध भाव सूं
बडी आस अर उछाव सूं।