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अब्बा की चौपाल /शशि पुरवार
Kavita Kosh से
अब्बा बदले नहीं
न बदली है उनकी चौपाल
अब्बा की आवाज गूँजती
घर आँगन थर्राते है
मारे भय के चुनियाँ मुनियाँ
दाँतों, अँगुली चबाते है
ऐनक लगा कर आँखों पर
पढ़ लेते है मन का हाल.
पूँजी नियम- कायदों की, हाँ
नित प्रातः ही मिल जाती है
टूट गया यदि नियम, क्रोध से
दीवारे हिल जाती है
अम्मा ने आँसू पोंछे गर
मचता तुरत बबाल.
पूरे वक़्त रसोईघर में
अम्मा खटती रहती है
अब्बा के संभाषण अपने
कानों सुनती रहती है
हँसना भूल गयी है
खुद से करती यही सवाल .