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अब, यदि प्रेम था तुम्हे - 2 / नीरजा हेमेन्द्र

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अब, यदि प्रेम था तुम्हें
मानव-से/मानवता-से
सत्य-से/सत्यता-से
सोच के गर्भ से उत्पन्न
अपने विचारों से
जिनसे तुम समस्त सृष्टि को प्रच्छालित कर
धवल कर देना चाहते हो
धो देना चाहते हो
मनवता की देह के रक्तरंजित धब्बे
भर देना चाहते हो /वो सारे ज़ख्म
जो अब दिखने लगे हैं नासूर की शक्ल में
तो तुम जमीन पर गिरे उन इन्सानों/इन्सानियत को
क्यों नही देख पा रहे हो
जो दबते जा रहे हैं रेगिस्तानों से आती
गर्म रेत के नीचे
धूल होते जा रहे हैं, आँधियों की गर्द में
देखो... उन्हें भी देखो
गर सम्मिलित कर सको अपनी सोच में
संवेदनाओं को भी
अब यदि प्रेम था तुम्हे, मुझसे
तो शब्दों के अथाह सागर से
क्यों नही चुन सके कुछ सरल सीधे-से शब्द
धरती पर गिरती बारिश की बूँदें
बन जाते तुम / जिनमें भीग कर उन्मादिनी-सी मैं
समाहित हो जाती तुममें
तुम आकाश की ऊँचाईयों से
इन्द्रधनुष की भाँति
मुझे आकृष्ट कब तक कर सकोगे
धूप में जिसका अस्तित्व ओझल हो जाएगा
अब यदि प्रेम था तुम्हें...