रेत पर वह भी रुकी है
विष-बुझी पुरवा हवा
अब अकेला मैं निपट हूँ
आज सर्पिल कुंडली में बंध गया मन
एक दीमक-ढूह-सा भारी हुआ तन
धमनियों में बस गयी है
निविड़ भादो की अमा
अब अकेला मैं निपट हूँ
अब गगन है सघन गुम्फित कालिमा
तारकों में विघटनों की भंगिमा
ग्रहों के रक्तिल नयन में
बन गयी रेखा अवा
अब अकेला मैं निपट हूँ
यह कुहा आसंग में खिलती हंसी है
गितियों की गमक मूर्च्छा में बसी है
पोटाशियम की झील पर है
साइनाइड दोहरा
अब अकेला मैं निपट हूँ
सीढ़ियाँ कर पार बरसों की निमिष में
मैं घिरी छत पर खड़ा अंधी तपिश में
बाहुओं में बंध गयी
दुर्बोध जड़ता की लता
अब अकेला मैं निपट हूँ ।
[ कविवर श्री राजेंद्र प्रसाद सिंह के गीत आसंगिनी
का प्रतिपक्ष: इसमें उनके शब्द भी हैं, पद भी । ]