भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब अपनी ज़ात का इर्फ़ान हो गया है / सुरेश चन्द्र शौक़
Kavita Kosh से
अब अपनी ज़ात का इर्फ़ान हो गया है
हर एक मरहला आसान हो गया है
मैं, देख तुझ से बिछुड़ कर भी जी रहा हूँ
ये मोजिज़ा भी मेरी जान हो गया है
सुकूत—ए—मर्ग मुसल्लत है दिल पे तुझ बिन
ये शह्र जैसे बियाबान हो गया है
अब ऐसे दिल का कोई क्या करे जो अक्सर
बग़ैर वजह परेशान हो गया है
बग़ैर तेरी दवा के भी अब मसीहा
हमारे दर्द का दरमान हो गया है
हर एक बात की उसको ख़बर है , लेकिन
वो जान बूझ के अंजान हो गया है.
इर्फ़ान=परिचय ; मोजिज़ा=चमत्कार; सु्कूत—ए—मर्ग= मौत की —सी चुप्पी; मुसल्लत=छाया हुआ; दर्मान=इलाज