भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब आँखों को दर्द घना है / गीता पंडित
Kavita Kosh से
हर सपना है रक्त में डूबा
अब आँखों को दर्द घना है
सीमाएँ या
घर के अंदर
संगीनों ने घेरा जीवन
फबती कसती रक्त नदी है
दहलाती नदिया
का तन मन
बिना जिए यूँ जीवन हारे
तो चुप्पी का
अर्थ मना है
अब आँखों को दर्द घना है
बहल कहाँ
पाते हैं सपने
धरती अनजाने जो देखे
सोच रहा है मन ललाट का
ऐसे लिखे
गये क्यूँ लेखे
हरी दूब का आँचल क्यूँकर
पतझर के
हर दाव सना है
अब आँखों को दर्द घना है।