भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब आई चंचला शरण में / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
घन-पर-घन आ गिरे गगन में
क्षण पर क्षण आ तिरे नयन में
श्याम नील हो गया धरातल
रंग रोर भर उमड़ पड़ा जल।
अब झूमें गजराज विजन में
छिपे सूर्य के कदली वन में
अब उतरी आँखों में कजरी
रस बरसी बाँहों में बदरी।
छूटी कटि की कनक मेखला
टूटी पद की लौह शृंखला
अब आई चंचला शरण में
पाने को आवास चरण में॥
रचनाकाल: १५-०७-१९६१