अब उठो कुण्ठा बुहारो / मृदुल कीर्ति
शक्ति के आँगन में तुलसी दीप चौबारे में बारो
ज्ञान की इस अलसुबह में, आरती का स्वर उबारो।
अब उठो कुण्ठा बुहारो।
रात की अब तह बना दो, विगत को चादर उढ़ा दो,
प्रात की गाओ प्रभाती, उदित रवि को जल चढ़ा दो।
अब उठो कुण्ठा बुहारो।
विगत से बस सीख लेकर, सत्य परिपाटी बना दो,
ज्ञान की इस शृंखला में, गीत नव नूतन उचारो।
अब उठो कुंठा बुहारो।
अरुणिमा आते ही देखो, विहग वृन्द उड़ान भरते,
शक्ति पंखों में समेटे, नाप लेते दिशा चारों।
अब उठो कुंठा बुहारो।
प्रगति कोई उच्च साधो, मुट्ठियों में लक्ष्य बाँधो ,
मन को अर्जुन सा बना कर, तीव्र गति सा तीर मारो।
अब उठो कुंठा बुहारो।
उदित रवि को सर नवा लो, प्रकृति को गुरुवर बनालो,
प्रकृति के कण-तृण सकल, महिम अति आरती उतारो।
अब उठो कुंठा बुहारो।