अब उस फ़लक पे चान्द सजाता है कोई और / रवि सिन्हा
अब उस फ़लक<ref>आसमान (Sky)</ref> पे चान्द सजाता है कोई और
उनके शहर के नाज़ उठाता है कोई और
रुख़्सत हुए कहीं से बुलाता है कोई और
गो आगही<ref>चेतना (awareness)</ref> के छोर से आता है कोई और
हमने सहर<ref>सुबह (morning)</ref> से बस उफ़क़<ref>क्षितिज (horizon)</ref> को सुर्ख़-लब किया
शोला ये तुन्द<ref>प्रचण्ड (blazing)</ref> सर पे चढ़ाता है कोई और
इस रिज़्क़<ref>जीविका (livelihood)</ref> से रिहा तो हुए मुद्दतों के बाद
पतझड़ में फूल आज खिलाता है कोई और
इक भीड़ सी मची है मिरे क़स्रे-हाफ़िज़ा<ref>स्मृतियों का भवन (castle of memories)</ref>
आवाज़ दूँ किसी को तो आता है कोई और
क़ाबू में है शुऊर<ref>चेतना (consciousness)</ref> तो तहतुश-शुऊर<ref>अवचेतन (the subconscious)</ref> से
वहशत<ref>पागलपन (frenzy)</ref> की फ़स्ल अब वो उगाता है कोई और
रहबर वो जब थे राह थी सीधी सी इक लकीर
तारीख़ को अब राह दिखाता है कोई और
है ज़ेरे-पा<ref>पैर के नीचे (under the foot)</ref> ये ख़ल्क़<ref>लोग, मानव जाति (people, mankind)</ref> तो तसख़ीर<ref>वशीभूत करना (subjugation)</ref> के लिए
आलम<ref>दुनिया (the world)</ref> ख़ला<ref>अन्तरिक्ष (space, vacuum)</ref> में अब वो बनाता है कोई और
वो रौशनी के बुर्ज हुए ग़र्क़े-बह्रे-ख़ल्क़<ref>अवाम के समुन्दर में डूब गए (drowned in the ocean of people)</ref>
साहिल<ref>समुद्रतट (shore)</ref> पे इक मशाल जलाता है कोई और