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अब और नहीं / असंगघोष
Kavita Kosh से
तुम पूजते रहे
गर्भगृह में
पत्थर के देवता
पुजाते रहे
अष्टधातु की मूर्तियाँ
लगाते रहे
उन्हें छप्पन भोग!
हमारी बेगारी की पीठ पर तने
ऊँचे उठते रहे
तुम्हारे गगनचुंबी शिखर
लहराती रहीं
तुम्हारी धर्म-ध्वजाएँ
हमारी भूख के आगे
बढ़ती रही तुम्हारी तोंद,
तुम्हारे भंडारों में
कैद होता गया
मेरा श्रम
मेरा पेट काट,
भरती ही चली गईं
तुम्हारी तिजोरियाँ
तुम आपादमस्तक
मस्त तर मस्त होते गए
मदांध हाथी की तरह
किन्तु अब नहीं
अब और अधिक नहीं
बिल्कुल भी नहीं
किंचित भी
अब नहीं सह सकता
तुम्हारा कोई भी अत्याचार
मेरे हाथों में
अंकुश आ गया है
चाहे जो हो जाए
तुम्हें नियन्त्रित कर
तुम्हारे पाँवों में
जंजीरें बाँधकर ही दम लूँगा।