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अब कहाँ ईमान का कुछ दाम है / देवी नांगरानी

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अब कहाँ ईमान का कुछ दाम है
रिश्वतों का बोलबाला आम है

दुश्मनों को दोस्त समझे इसलिये
ज़ख़्म ही इस भूल का अंजाम है

दोस्त जाने अब कहाँ गुम हो गए
दोस्ती का रह गया अब नाम है

आस की मद्धम-सी लौ जलती है जो
उससे ही रौशन मिरी हर शाम है

रोज़ उसको चूमते रहते हैं हम
जिस हथेली पर सजन का नाम है

राहतें ‘देवी’ ने ठुकराई है बहुत
मुश्किलों ही मुश्किलों से काम है