भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब कहाँ ईमान का कुछ दाम है / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
अब कहाँ ईमान का कुछ दाम है
रिश्वतों का बोलबाला आम है
दुश्मनों को दोस्त समझे इसलिये
ज़ख़्म ही इस भूल का अंजाम है
दोस्त जाने अब कहाँ गुम हो गए
दोस्ती का रह गया अब नाम है
आस की मद्धम-सी लौ जलती है जो
उससे ही रौशन मिरी हर शाम है
रोज़ उसको चूमते रहते हैं हम
जिस हथेली पर सजन का नाम है
राहतें ‘देवी’ ने ठुकराई है बहुत
मुश्किलों ही मुश्किलों से काम है