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अब कहाँ से आएँगे वो लोग जो नायाब थे / प्रेमचंद सहजवाला
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अब कहाँ से आएँगे वो लोग जो नायाब थे
रात की तारीकियों में टिमटिमाते ख्वाब थे
सारी मौजें आसमां को छू रही थी एक साथ
पर समुन्दर में सभी नदियों के शामिल आब थे
सुबह आए इसलिए वो रात भर जलते रहे
रौशनी से लिख रहे वो इक सुनहला बाब थे
कुछ कदम चलना था तुझ को कुछ कदम फिर मैं चला
सामने फिर डूबने को इश्क के गिर्दाब थे
शहृ जब पहुंचे तो खुश थे फिर अचानक क्या हुआ
हादसों के सिलसिलों में हम सभी गरकाब थे
मंज़िलों के सब मसीहा मील पत्थर बन गए
वो शहादत के फलक पर जलवागर महताब थे
ईद पर जब चाँद निकला सब सितारे खुश हुए
कर रहे फिर एक दूजे को सभी आदाब थे